गुरु और प्रभु भक्ति
गुरु तीर्थ,
माता-पिता तीर्थ
संत तीर्थ
भक्त तीर्थ
पत्नी तीर्थ और पति तीर्थ
भगवदीय तीर्थ ।
मोना अपने महादेव की भक्ती में लीन आंनदमय जीवन जी रही है।
जिस मन से, भाव से, आदर से, समर्पण से, श्रद्धा-आस्था से मोना अपने गुरु को देखती हूँ, उसे उनमें ही ईश्वर दिखाई देते है, कोई अंतर नहीं गुरु और ईश्वर में।
सद्गुरु कहते है कि, "अपने परिवार से प्रेम करो पर मोह में मत फँसो। जितना सेवा कार्य हो सके, करने का प्रयास करें।
अपने आपको थका हुआ बोल कर,अपने कर्मों से विमुख नहीं होना है।"
सद्गुरु के दर्शन करके शिष्य कितना धन्य होता है, उसका मन कितना प्रफुल्लित होता है, उसे तो वही जान सकता है, जिसके अपने भाव भी वैसे ही हो।
संकल्प शक्ति के साथ और ध्यान यात्रा पर आपका सद्गुरु, हर पग पर आपका मार्गदर्शन करते हैं और आपको आपसे ही मिलवा देते है।
महादेव रूपी रत्न से मोना प्रसन्न है और आज बोल रही है -
हीरा है मेरे पास
महादेव के रूप में, समा गए अंदर।
अब मोना, मोना न रही
हर साँस में महादेव है अंदर।
दो संत हुई सहजोबाई और दयाबाई।
दोनों की गुरुभक्ति अपूर्व है।
गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम भक्ति दोनों ने अपने भजनों में गाया है।
गुरु ही ज्ञान का सागर तथा सच्चा पथ-प्रदर्शक है।
दोनो के एक ही गुरु थे, सन्त चरणदास, जो हरियाणा के मूल निवासी थे और बाद में दिल्ली के चाँदनी चौक में आकर यहीं बस गये थे।
चरनदास सन्त थे, किन्तु साथ ही बहुत बड़े राष्ट्रभक्त थे। 1839 में उन्होंने अंग्रेजों के आक्रमणें और शासन का विरोध किया था।
सहजोबाई कहती है कि ईश्वर सारे काम करता है, सर्वशक्तिमान है, सर्वनियन्ता है, सब कुछ उसी के बस में हैं, सब कुछ करने वाला वो ही है, किन्तु नज़र नहीं आते, स्वयं को छुपा कर रखा हुआ है और गुरु, जिन्होंने ने इतने उपकार किये, उन के साक्षात दर्शन कर लो, सुरा स्वरूप को देख कर धन्य हो जाओ, बात कर लो आशीष ले लो, गुरु की कृपा पा लो, साक्षात दर्शन करो। सहजोबाई की तरह दयाबाई ने भी अपने गुरु की बहुत महिमा गाई है। वह करती हैं,
गुरु बिन ध्यान नहीं होवै, गुरु विन चौरासी मग जोवै। गुरु बिन राम भक्ति नहीं जागो गुरु बिना -- कर्म नहीं त्यागै, गुरु ही दीन दयाल --, गुरु सरनै जो कोई जांई,-- करै काग नूँ हंसा, मन को मेंरत है सब संसा।
गुरु के बिना जीवन का अर्थ नहीं। गुरु प्रकाश स्वरुप हैं। वे मनुष्य को अंधकार से बाहर निकालते हैं। अभिप्रायः यह है कि सद्गुरु के सत्संग ध्यान और भक्ति से उसका भक्त (सेवक) भी सर्वज्ञ होकर उत्तम सहज अवस्था प्राप्त कर लेता है। जैसे लोहा चुम्बक के साथ मिल कर चुम्बक ही बन जाता है, इसी प्रकार सद्गुरु की शरणागति और सेवा से भक्त भी भगवान के गुणों से सम्पन्न हो जाता है।